जब सुन्दर सा कोयले का धुंआ,
उठा करती थी मिटटी के चूल्हों से!!
जब जाड़े की ठंडी ठंडी धुप में,
भंवर बैठा करते थे गेंदे के फूलों पे!!
तब रात गुजरती थी कभी लिपटे किसी शाल में,
और तब मैं लेटा था दिल्ली के किसी अस्पताल में!!
जब दोस्त तमाशा करते थे कुछ छोटी से बातों पे,
और मेरे तन को सीला गया कुछ मोटे से टांको से!
जब डरते थे सब भूतों से या फिर कोने के बन्दर से ,
और मैं लड़ पड़ा अकेले ही छुपे दर्द के समंदर से!!
आये न कोई पीर सामने न आया कोई संत बड़ा,
कुछ यूँ सा हो गया था कभी अंत मेरा!!
By : Nilesh Ranjan
फिर कुछ उभरा होगा अपने ही अंत की राख से
फिर पत्तों की पांजेब बजी होगी, ठूंठ जैसे शाख से
फिर उमड़ा होगा सैलाब, रुके हुए किनारों से
फिर चल पड़ा होगा जीवन, नयी आशा की किरणों से
यही हैं जीवन, यही हैं मरण, यही हैं यात्रा
आदि से अनंत तक, अनंत मरणों की जत्रा
फिर चलती हैं राहें जीवन की, रुकी हुई साँसे
फिर चलते हैं अर्जुन के साथ साथ, शकुनी के पांसे
यूँ ही चलेगा आवागमन का खेल
जब तक न हो जाए ओंकारसे ताल-मेल
फिर न होगा आना-जाना, न ही आदि-अंत
रुकेंगे स्वर्ग के द्वार पर – बुद्ध जैसे महंत
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